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21वीं सदी में भी गांधी प्रासंगिक क्यों हैं

भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता को संपूर्णता के रूप में प्रस्तुत करने वाले महात्मा गांधी के विचारों ने दुनिया भर के लोगों को न सिर्फ प्रेरित किया बल्कि करुणा और शांति के दृष्टिकोण से भारत व दुनिया को बदलने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका मानना था कि पश्चिमी सभ्यता जहाँ भोग-विलास और शारीरिक सुख को ही अंतिम उद्देश्य मानकर चलती है, वहीं भारतीय सभ्यता आत्मिक उन्नयन की बात करती है। गांधी कहते थे कि सुख की आकांक्षा का विस्तार अनंत है तथा इसके मूल में विनाश है। अत: मानवता के सहज विकास के लिये आवश्यक है कि मनुष्य इस छलावे वाली प्रगति से उबर कर स्वाभाविक विकास को अपनाए। लेकिन वर्तमान समय में झूठ-फरेब, छलावा बढ़ता ही जा रहा है, लगभग हर व्यक्ति अपने चेहरे पर मुखौटा लगाए हुए है। आज लोग सोशल मीडिया में प्रसिद्धि पाने के लिये तरह-तरह के पैंतरे अपना रहे हैं। छोटी-छोटी बातों पर दंगे व हत्याएँ की जा रही हैं। ऐसे में गांधी का दर्शन व विचारधारा ही है जो हमें सत्मार्ग पर ला सकती है। आज ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी के विचार तत्कालीन समय में जितने प्रासंगिक थे, उससे कई गुना ज़्यादा वर्तमान में प्रासंगिक हैं। तभी रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने गांधी के बारे लिखा है कि-

“एक देश में बांध संकुचित करो न इसको
गांधी का कर्तव्य क्षेत्र, दिक् नहीं, काल है
गांधी है कल्पना जगत के अगले युग की
गांधी मानवता का अगला उद्विकास है”

गांधी जी ने अपने पूरे जीवनकाल में सिद्धांतों और प्रथाओं को विकसित करने पर ज़ोर दिया और हाशिये पर स्थित समूहों व पीड़ित समुदायों के लिये आवाज़ उठाई। गांधी 'सर्वधर्म समभाव' की भावना से प्रेरित थे जो कि आधुनिक युग में वैश्विक सद्भावना का वातावरण बनाए रखने और 'वसुधैव कुटुम्बकम' के विचार को साकार करने के लिये बेहद ज़रूरी है। वह साधन व साध्य दोनों की शुद्धता पर बल देते थे। उनके अनुसार, साधन व साध्य के मध्य बीज और पेड़ जैसा संबंध है और बीज के दूषित होने की दशा में स्वस्थ पेड़ की उम्मीद करना अकल्पनीय है।

गांधी की सत्य की अवधारणा: गांधी जी सत्य को ईश्वर का पर्याय मानते थे। वे अपने वचनों और चिंतन में भी सत्य को स्थापित करने का पूरा प्रयास करते थे। लेकिन आधुनिक समय में आम आदमी ही नहीं बल्कि ईश्वर को साक्षी मानकर अपने पद की शपथ लेने वाले राजनेता व मंत्री तक अपनी लोकप्रियता बरकरार रखने के लिये झूठ बोलने से नहीं कतराते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि देश में गांधीवादी सिद्धांतों का सही तरह से पालन किया जाए, जिससे देश नवनिर्माण की दिशा में आगे बढ़ सके।

गांधी का अहिंसा दर्शन: गांधी के अनुसार मन, वचन और शरीर से किसी को भी दु:ख न पहुँचाना ही अहिंसा है। उनका मत था कि हिंसा की बजाय अहिंसा के ज़रिये अपनी मांगों को आसानी से मनवाया जा सकता है। उन्होंने अहिंसा को अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल करके आजादी के महत्वपूर्ण आंदोलनों को सफल बनाया। वह समझते थे कि निहत्थे का हथियार बंदूक नहीं है। बंदूक तो सत्ता का हथियार है। एक जगह तो उन्होंने अहिंसा को एटम बम से भी ज़्यादा प्रभावी बताया है।

यदि वर्तमान में इस सिद्धांत का पालन किया जाए तो क्षुद्र राजनीतिक व आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये व्याकुल समाज व विश्व अपनी कई समस्याओं का निदान कर सकता है। लेकिन आज संपूर्ण विश्व अपनी समस्याओं का समाधान हिंसा के माध्यम से करना चाहता है। वैश्वीकरण के इस दौर में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा ही खत्म होती जा रही है।

हार्वर्ड के प्रोफेसर लेसली के फिंगर का कहना है कि 21वीं सदी दुनिया के इतिहास में तुलनात्मक रूप से सबसे सुंदर दौर है। इसके बावजूद विश्व के अधिकांश देशों में अशांति फैली हुई है। अधिकतम देश हिंसा और युद्ध के शिकार हैं। यह अंधी दौड़ दुनिया को अंतत: विनाश की ओर ले जा रही है। एक रिपोर्ट से पता चला है कि, 20वीं सदी में सिर्फ 26 प्रतिशत हिंसक आंदोलन सफल और 64 प्रतिशत असफल रहे, जबकि इस दौरान 54 प्रतिशत अहिंसक अभियान सफल रहे। यानी हिंसक आंदोलनों की तुलना में अहिंसक आंदोलन बदलाव लाने में ज़्यादा सफल रहे। आज ज़रूरत है कि दुनिया इस व्यवहारिकता को पहचाने। इस संदर्भ में कवि माखनलाल चतुर्वेदी लिखते हैं-

‘’किंतु, क्या कहता है, आकाश? ह्रदय! हुलसो सुन यह गुंजार!
पलट जाए चाहे संसार, न लूँगा इन हाथों तलवार!’’

गांधी जी और स्वच्छता: गांधी जी स्वच्छता को स्वतंत्रता से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे। इन दिनों हमारे देश में भी स्वच्छता अभियान जोरों पर है लेकिन गांधी के अभियान और इसमें भाव का फर्क है। आज, चाहे स्वच्छ गंगा मिशन हो या हर-घर शौचालय योजना, इसलिए पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया है, क्योंकि हमारी सरकारों द्वारा किसी भी योजना को सफल बनाने के लिए सरकारी मशीनरियों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। जबकि आज केवल सरकारी मशीनरियों के झोंके जाने की बजाय सामुदायिक भावना का विकास किये जाने व लोगों को ज़ागरूक किये जाने की ज़रूरत है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिगत एवं सामुदायिक, दोनों स्तरों पर देश को स्वच्छ बनाने में बढ़-चढ़कर अपना योगदान दे।

1926 में यंग इंडिया में प्रकाशित एक टिप्पणी में नदियों में बढ़ती गंदगी पर चर्चा करते हुए गांधी ने लिखा था, “आधुनिक व्यस्त जीवन में तो हमारे लिये इन नदियों का मुख्य उपयोग यही है कि हम उनमें गंदी नालियाँ छोड़ते हैं और माल से भरी नौकाएं चलाते हैं। हम इन कार्यों से इन नदियों को मलिन से मलिनतर बनाते चले जा रहे हैं।”

पर्यावरणविद के रूप में गांधी: सालों पहले गांधी जी ने चेताया था “ऐसा समय आएगा जब अपनी ज़रूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग अपने किए को देखेंगे और कहेंगे, ये हमने क्या किया?” यदि हम वर्तमान के जलवायु परिवर्तन से संबंधी वाद-विवादों को देखें तो जिस व्यग्रता से पश्चिमी देश उभरते हुए देशों को अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिये समझा रहे हैं और विकसित देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन की गति को कम करने के लिये अरबों रुपये खर्च किए जा रहे हैं, उससे गांधी की भविष्यवाणी सच होती दिख रही है।

गांधी का पर्यावरणशास्त्र भारत और विश्व के लिये उनके इस समग्र दृष्टिकोण के अनुरूप है कि मनुष्य का अस्तित्व बने रहने के लिये जो अत्यंत आवश्यक है वही प्रकृति से मांगा जाए। गांधी जी ने कहा था कि “धरती के पास सभी की ज़रूरतों को पूरा करने लिये पर्याप्त है, किंतु किसी के लालच के लिये नहीं”। ऐसे में किसी लोकहितकारी मुहिम में समाज के सभी वर्गों को जोड़ने की कला गांधी जी से सीखी जा सकती है। आज पर्यावरण की जंग में भी अहम है कि उसके साथ लोक का भाव जोड़ा जाए। और लोक व पर्यावरण को एक साथ जोड़ने का औजार गांधीवाद ही हो सकता है।

गांधी का सर्वोदय सिद्धांत: ‘सर्वोदय’ मात्र एक शब्द नहीं है बल्कि गांधी की एक विचारधारा है जिसमें ‘सर्वभूतहिते रता: यानी स्वार्थ से परे रहकर दूसरों की भलाई में जुटे रहने’ की भारतीय कल्पना, सुकरात की ‘सत्य साधना’ और रस्किन की ‘अंत्योदय’ की अवधारणा सब कुछ शामिल है। 21वीं सदी में सर्वोदय एक समर्थ व समग्र जीवन का पयार्य बन चुका है। आज के दौर में पूरी दुनिया शोषणरहित, जातिरहित, हिंसारहित समाज की खोज में जुटी है, जो कि गांधी के सर्वोदय की संकल्पना से ही साकार हो सकता है।

गांधी के स्वराज की अवधारणा: गांधी के ग्राम स्वराज का अर्थ, आत्मनिर्भर व स्वायत्त्त ग्राम पंचायतों की स्थापना के ज़रिये ग्रामीण समाज के अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति तक शासन की पहुँच सुनिश्चित करना था। गांधी जी विकेंद्रीकृत सरकार व विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के समर्थक थे। वे लघु, सूक्ष्म व कुटीर उद्योगों की स्थापना पर बल देते थे। उनका मत था कि भारी उद्योगों की स्थापना करने से पर्यावरण तो प्रदूषित होता ही है, साथ ही श्रमिक वर्ग का शोषण भी बढ़ता जाता है। कोरोना महामारी के दौर में जब पूरे विश्व को एक बार फिर से आर्थिक मंदी का खतरा दिखाई दे रहा था, ऐसे में ये कुटीर उद्योग ही गरीब श्रमिकों के लिये आशा की किरण बनकर उभरे थे।

गांधी का ट्रस्टीशिप सिद्धांत: यह सिद्धांत सामाजिक साधनों को एक न्यास के रूप में रखता है और इस न्यास का ट्रस्टी मनुष्य को बताता है। गांधी का मानना था कि भौतिक संपत्ति समाज का न्यास है। इसलिए व्यक्ति को केवल उतना ही लेना चाहिए जितना उसके सुविधाजनक जीवनयापन के लिये आवश्यक है। सरल शब्दों में कहें तो यह सिद्धांत ‘मैं’ को ‘हम’ में परिवर्तित करता है। यह अमीर व्यक्तियों को एक ऐसा माध्यम प्रदान करता है जिसके द्वारा वे गरीब और असहाय लोगों की मदद कर सकें। यह सिद्धांत गांधी के आध्यात्मिक विकास को दर्शाता है, जो कि भगवतगीता के अध्ययन से उनमें विकसित हुआ था। बात करें वर्तमान में इस सिद्धांत की प्रासंगिकता की, तो ट्रस्ट द्वारा संचालित अस्पताल व एनजीओ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

गांधी का स्वदेशी मॉडल: स्वदेशी का शाब्दिक अर्थ ‘अपने देश का’ होता है परंतु अधिकांश संदर्भों में इसका अर्थ आत्मनिर्भरता के रूप में लिया जा सकता है। आधुनिक समय में जब अमेरिका एवं चीन जैसे देश व्यापार-युद्ध के माध्यम से अपने को मजबूत और दूसरे देशों की आर्थिक व्यवस्था को कमज़ोर करने पर तुले हैं, ऐसी स्थिति में स्वदेशी की यह संकल्पना देश के घरेलू उद्योगों और कारीगरों के लिये एक वरदान की भांति सिद्ध होगी।

उपर्युक्त तथ्यों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि गांधी जी अपने समय के सबसे बड़े दार्शनिक थे। उनके विचार 1900 के प्रारंभिक दौर में ही नहीं बल्कि 21वीं सदी में भी बेहद प्रभावी हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उन्होंने जमीनी स्तर पर अपने विचारों का परीक्षण किया और जीवन में सफलता प्राप्त की, जो न केवल खुद के लिये अपितु पूरे विश्व के लिये थी। आज दुनिया गांधी द्वारा दिखाए गए मार्ग को सबसे स्थायी रूप में देखती है। गांधी का शरीर मर सकता है, लेकिन गांधी के विचारों को नहीं मारा जा सकता। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो-

‘’मैंने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है
पर मैं गाऊंगा
चाहे इस प्रार्थना सभा में
तुम सब मुझ पर गोलियाँ चलाओ
मैं मर जाऊंगा
लेकिन मैं कल फिर जनम लूंगा
कल फिर आऊंगा’’

  शालिनी बाजपेयी  

शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।

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